( उर्दू اردو )
अकसर उर्दू को निशाना बनाया जाता रहा है , कभी इसे मुसलमानो की जुबां ज़ुबां कह दी जाती है तो कभी आतंकवादियों की , कभी पाकिस्तानियो की तो कभी विदेशिओं की पर उर्दू ज़बान ने पाला पोसा था भारत की आज़ादी के संग्राम को-उर्दु हिन्दोस्तान का आईना है अब पूछिएगा कैसे..?
( तो सुनिए )
वो कहते हैं ना घर क्या बंटा, बेटी अनजान बन गई, मुल्क क्या बंटा, उर्दू मुसलमान हो गई।
उर्दू ही वह ज़ुबान है जिसने अंग्रेजों को सबसे पहले बुलंद आवाज में ललकारा और मौलाना मोहम्मद बाक़ीर को पैदा किया मौलाना मोहम्मद बाक़ीर देश के पहले और शायद आखिरी पत्रकार थे, जिन्होंने 1857 में स्वाधीनता के पहले संग्राम में अपने प्राण वा जान की आहुति दी थी। मौलाना साहब अपने समय के बेहद निर्भीक पत्रकार रहे थे। वे उस दौर के लोकप्रिय ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ के संपादक थे. दिल्ली और आसपास अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ जनमत तैयार करने में इस अखबार की बड़ी भूमिका रही थी। मौलाना साहब अपने अखबार में अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति के विरुद्ध और उनके खिलाफ लड़ रहे सेनानियों के पक्ष में लगातार लिखते रहे। अंग्रेजों ने उन्हें बड़ा ख़तरा मानकर गिरफ्तार किया और सज़ा-ए-मौत दे दी। उन्हें तोप के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया गया जिससे उनके वृद्ध शरीर के परखचे उड़ गए, लेकिन आज हम और आप और इस समाज के तमाम लोग इस तारीख से बे खबर हैं।
इस वाक़िये पर अकबर इलाहाबादी ने एक तंज़िया शेर लिखा था :-
यही फ़रमाते रहे ‘तेग़’ से फैला इस्लाम,
ये ना इरशाद हुआ ‘तोप’ से क्या फैला है..!!
BAHADUR SHAH ZAFAR
उर्दु ने ही बहादुर शाह ज़फ़र को अपनी गोद मे पाला जिन्होने हिन्दोस्तान की पहली जंगे आज़ादी मे हमारी क़ियादत की थी, और जब अंग्रेज़ जनरल ने बहादुर शाह ज़फ़र के जवान बेटो के सर कलम करके बहादुर शाह ज़फ़र के आगे पेश कर दिए थे तो उन्होंने सर तो दे दिया लेकिन गुलामी पसंद नहीं की इस पर जनरल ने कहा था,
दम-दमें में दम नही ख़ैर मांगो जान की,
अए ज़फ़र ठण्डी हुई शमशीर हिन्दुस्तान की..!!
इस पर बहादुर शाह ज़फ़र ने एक तारीखी जवाब दिया
ग़ज़ीयो में बु रहेगी जब तक इमान की
तख्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की..!!
NETA SUBHASH CHANDR BOS
नेताजी सुभाषचंद्र बोस उर्दू के अच्छे जानकार थे। बांग्ला उनकी मादरी ज़ुबान थी। वहीं, वे हिंदी, अंग्रेजी के अलावा उर्दू भी बोलते थे। आजाद हिंद फौज का नाम उर्दू से मुतास्सिर है। उसके नारों में उर्दू के अनेक लफज़ों का उपयोग किया गया है, आजादी के आंदोलन में उर्दू का महान योगदान है।
HASRAT MOHANI
उर्दु ने ही मौलाना हसरत मोहानी को पैदा किया जिन्होने इंकलाब जिंदाबाद का नारा दिया, भगत सिंह और अनेक बलिदानी इंकलाब जिंदाबाद ज़िंदाबाद कहते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए।
BISMIL AZEEMABAADI
उर्दु ने ही बिसमिल अज़ीमाबादी को पाला जिन्होने ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है’ जैसी इंक़लाबी ग़ज़ल लिख दी। राम प्रासाद बिसमिल और अनेक बलिदानी इस ग़ज़ल को गाते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए,
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिक़ोँ का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है,
यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है,
RAM PRSAD BISMIL & ASHFAK ULLAH KHAN
राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ और अशफाक उल्ला खाँ भी बहुत अच्छे उर्दु शायर थे। इन दोनों की शायरी की अगर तुलना की जाये तो रत्ती भर का भी फर्क आपको नजर नहीं आयेगा।
“बहे बहरे-फना में जल्द या रब लाश ‘बिस्मिल’ की।
भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शमशीर कातिल की
“जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन।
बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की”
Ashfak UllahKhan
अगर उर्दू नापाक बदमाशों और आतंकवादियों की भाषा होती तो ये लोग कम से कम अपनी ज़िंदगी के आखिरी लम्हों में तो इसका इस्तेमाल नहीं करते। इससे साबित होता है कि उस समय उर्दू का हिन्दोस्तानी अवाम पर जबर्दस्त प्रभाव था।
इक़बाल का लिखा
“तराना-ए-हिन्दी” तो याद होगा ही..?
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।
अगर याद नही है तो किसी भी ट्रेन पर चढ़ जाईये हर दरवाज़े के ऊपर ” हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा।। सारे ” लिखा हुआ मिल जाएगा इन्हे भी उर्दु ने ही पाला था,
“वतन की फिक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है,
तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में,
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तां वालो,
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में”
गुलामी में न काम आती हैं तदबीरें तकदीरें
जो हो जौक ए यकीं पैदा तो कट जाती हैं जंजीरें
गुर्बत में हो अगर हम रहता है दिल वतन में।
समझो वहीं हमें भी दिल है जहाँ हमारा,
ऐ आब रूद-ए गंगा वो दिन है याद तुझको, उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा।
यूनान – ओ- मिस्र-ओ-रूमा सब मिट गये जहाँ से,
अब तक मगर है बाकी नाम – ओ- निशां हमारा,
कुछ तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदिओं रहा हैं दुश्मन दौर-ए-जमां हमारा,
पंडित ब्रज नारायण
उर्दु ने ही पंडित बृज नारायण चकबस्त को पैदा किया जिसने अपनी इंक़लाबी गज़लो से अवाम मे एक नया जोश ड़ाल दिया,
वतन परस्त शहीदों की ख़ाक लाएँगे, हम अपनी आँख का सुरमा उसे बनाएँगे..?
कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पे भी,
पर अब उरूज वो इल्मो कमालो फ़न में नहीं,
रगों में ख़ून वही दिल वही जिगर है वही,
वही ज़बाँ है मगर वो असर सख़ुन में नहीं,
वही है बज़्म वही शम्-अ है वही फ़ानूस,
फ़िदाय बज़्म वो परवाने अंजुमन में नहीं,
वही हवा वही कोयल वही पपीहा है वही चमन है पर वो बाग़बाँ चमन में नहीं,
ग़ुरूरों जहल ने हिन्दोस्ताँ को लूट लिया,
बजुज़ निफ़ाक़ के अब ख़ाक भी वतन में नहीं,
साहिर लुधानवी
उर्दु ने ही साहिर लुधानवी को अपनी गोद मे पाला जिसने अपनी इंक़लाबी गज़लो से नेताओं को आईना दिखाया और आम अवाम को बताया कि,
“ये किसका लहु है कौन मरा”
ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ ये कुचे, ये गलियाँ, ये मंजर दिखाओ जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं,
फराक गोरखपुरी
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद उर्दू में भी लिखते थे। उनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत उर्दू से हुई, उर्दु ने ही रघुपति सहाय को फ़राक़ गोरखपुरी बना दिया,
दयारे-गै़र में सोज़े-वतन की आँच न पूछ,
ख़जाँ में सुब्हे-बहारे-चमन की आँच न पूछ,
फ़ज़ा है दहकी हुई रक़्स में है शोला-ए-गुल,
जहाँ वो शोख़ है उस अंजुमन की आँच न पूछ,
कैफी आज़मी
उर्दु ने ही कैफ़ी को कैफी आज़मी बनाया जिसने लिखा तो सबने पढ़ा.
कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो,
साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई फिर भी बढ़ते क़दम को न रुकने दिया,
कट गए सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं सर हिमालय का हमने न झुकने दिया,
दुष्यंत कुमार
उर्दु ने ही दुष्यंत कुमार को एक अलग मोक़ाम दिया और उनकी उर्दु मे लिखी एक ग़ज़ल ने पुरे ख़ित्ते मे इंक़लाब बपा कर दिया
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए,
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए,
तो अब ठेठ मे सुनो कि उर्दु है क्या..?
“उर्दु सरफ़रशोँ की ज़ुबान है”
“उर्दु इंक़लाब वालोँ की ज़ुबान है”
“उर्दु ख़ुद्दारोँ की ज़ुबान है”
“उर्दु शोहदाओँ की ज़ुबान है”
“उर्दू जांबाज़ो की ज़ुबान है”
“उर्दू बहादूरो की ज़ुबान है”
“उर्दू गाज़ियो की ज़ुबान है”
“उर्दु हिंदोस्तान की ज़ुबान है”
“पर अब भी ये मुसलमान की ज़ुबान नही है”
“जब जब ज़ुल्म की इंतेहा होगी उर्दु अपना जलवा दिखाएंगी इंक़लाब लाएगा”
कलीम अज़ीज़
“चाहे इमरजेँसी के दौर मे कलीम आज़िज़ ही क्योँ ना हो”
“दिन एक सितम, एक सितम रात करे हो”
“वो दोस्त हो, दुश्मन को भी मात करे हो”
“दामन पे कोई छींट, न खंजर पे कोई दाग”
“तुम कत्ल करे हो, के करामात करो हो”
उर्दु हिन्दुस्तान का आईना है जो आपको आपका असल चेहऱा दिखाएगा, उर्दु पर नकेल कस आप ख़ुद को अंग्रेज़ो के फ़ेहरिस्त मे खड़ा कर रहे हैँ,
अकबर अलाहबादी
“आखि़र मे अकबर अलाहबादी की लिखी हुई ये दो लाईन के साथ फ़िलहील के लिए मै अपनी बात को ख़त्म करता हुं”
“खींचो न कमानो को, न तलवार निकालो,”
“जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो”
नोट: ये थी वो उर्दू اردو जिसे आज कल कुछ नादान लोग यूनिवर्सिटी, रेलवे स्टेशन, बड़े बड़े किले, स्कूल, कॉलेज, शहरो के नाम वा अन्य जगह जगह से मिटाना चाहते है जब की सब इसी के चाहने वाले है और आज कल कुछ सियासतदान धर्म के नाम पर इसी की मुखलफत करते हैं जैसे के उर्दू नही हो गई कोई बम हो गया हो।
( हमारा इतिहास ) ✊ 🇮🇳 ⚖️
अलतमश रज़ा खान
( उत्तर प्रदेश, बरेली शरीफ मोहल्ला शाहबाद )
मो. 6397753785