गौर कीजिए क्या कहता है FIR की कॉपी!
New India News/CG FIR में दर्ज यह बयान वीडियो से हूबहू मेल खाता है।
पूरे एफ़आईआर को पढ़िए- यह स्वयं इस वीडियो की पुष्टि करती है । अब ये वीडियो सही है या संजीव तिवारी ये आप तय कीजिए ?
कांग्रेस प्रवक्ता द्वारा शेयर किया गया वीडियो सच कुछ और ही बया कर रहा है…
https://www.facebook.com/share/v/1YZMbuPtCy/
प्रमुख मीडिया संस्थान पूरे वीडियो में से केवल दो दृश्य अपने सहूलियत से छाँटकर दिखा रहे हैं —
यही दिखाता है कि कैसे ये नामी मीडिया घराने सच को झूठ और झूठ को सच बनाकर जनता तक पेश करते हैं।
वीडियो में साफ़ दिखता है कि काला शर्ट पहना व्यक्ति एवं अन्य संजीव तिवारी के कक्ष में जाकर खड़ा रहकर बात करता है। जिसमें सहायक संचालक दफ्तर में अखबार बांटने की बात पहले करते हैं। जिसके बाद काले शर्त वाला कहता है कि अखबार बांटना गलत है क्या! इतने में अपना कुर्सी छोड़कर चेंबर से सहायक संचालक उठकर उन्हें बाहर निकालने का प्रयास करते हैं। इतना ही नहीं वीडियो यह भी बताता है कि वहां पहुंचे किस ने पहले से सहायक संचालक पर हाथ नहीं उठाया ना ही मारपीट करते नजर आ रहे हैं। जबकि एक पतले दुबले लड़के का गला पहले से सहायक संचालक दबाते नजर आ रहे हैं जिसके बीच बचाव में काले रंग शर्त का व्यक्ति दोनों को छोड़ने के उद्देश्य से पीछे से खींचता नजर आता है। इसी दौरान सभी कमरे से बाहर निकल गए तब तक कोई भी सामान का टूटफूट नहीं हुआ था। अब ध्यान देने वाली बात यह है कि बाहर ही सारा फसाद वीडियो में नजर आ रहा है और बाहर सारे विवादों के बाद कोई अंदर गया ही नहीं तो सामग्रियां तोड़फोड़ कैसे हो गई।
न तो अभद्रता है, न तोड़फोड़। किसी ने संजीव तिवारी को उकसाया नहीं। जबकि संजीव तिवारी ने उस लड़के का गर्दन दबोचकर अपनी आत्म रक्षा के लिए खुद उन्हें उकसाया है। अपने साथी की जान बचाने के लिए काले कपड़े वाला व्यक्ति संजीव तिवारी का गला पकड़ता है । सिर्फ़ तब तक जब तक उसका साथी तिवारी के चंगुल से छूट नहीं जाता। और जैसे ही उसका साथी सुरक्षित होता है, वह तिवारी को छोड़ देता है।
भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023 की धारा 35-किसी की जीवन रक्षा में किया गया बल प्रयोग अपराध की श्रेणी में नहीं है । अगले सीन में वही व्यक्ति गुस्से में भी “तिवारी जी” कहकर आदर सूचक शब्द से संबोधित करता है,
आप हमारे लिए यहाँ बैठे हैं जैसे शब्दों का प्रयोग करता है।
जबकि संजीव तिवारी फिर से पतले-दुबले युवक पर दौड़कर हमला करते हैं!
वीडियो रिकॉर्ड हो रहा था, इस बात से बेखबर, संजीव तिवारी बाद में खुद पर पहले हमला करने का झूठा आरोप लगाने लगे। जबकि बचाओ वीडियो बनाओ मुझे मार रहे हैं जैसे शब्दों का प्रयोग पतला दुबला लड़का कर रहा है जिसकी गर्दन 2 बार सहायक संचालक ने दबोचा है।
अब एफ़आईआर और पुलिस की कार्रवाई पर उठते हैं सवाल ?
आप सभी FIR की कॉपी गौर से पढ़ सकते हैं जिस एफ़आईआर आवेदन में संजीव तिवारी ने लिखावाया है कि बुलंद छत्तीसगढ़ समाचार के संपादक मनोज पांडे कक्ष में आए और इसी विषय पर चर्चा करने लगे। कहीं भी उन्होंने मनोज पांडे पर मारपीट या अभद्रता का आरोप नहीं लगाया! और ना ही FIR में मनोज पांडेय के नामजद कोई आरोप हैं। फिर 10 अक्टूबर 2025 की दरम्यानी रात 1:37 AM बजे दो वर्दीधारी पुलिस और 8-10 लोग मनोज पांडे के घर किस कारण गेट तोड़कर जबरन घुसे ?जबकि एफआईआर तो 04 अज्ञात लोगों के नाम पर है, तो पुलिस मनोज पांडे के घर क्या करने आई थी, वह भी बिना किसी सर्च वारंट के ? पुलिस ने सीसीटीवी का DVR से छेड़छाड़ क्यों किए ? जब मनोज पांडे आरोपी है ही नहीं ना ही एफ़आईआर में एक भी धारा 7 वर्ष की सजा या उससे अधिक वाली है तो फिर मनोज पांडे के घर पुलिस क्यों गई थी ? एक ट्रांसजेंडर को महिला पुलिस बताकर आधी रात घर के अलमारियों में आखिरकार क्या ढूंढ रही है पुलिस डिपार्टमेंट इसकी सार्वजनिक जानकारी कॉलोनी वासियों के बीच क्यों बताए और मनोज पांडेय के घर आखिर दिन के उजाले में पुलिस क्यों नहीं आई ?
क्या पुलिस डिपार्टमेंट को यह जानकारी नहीं है कि बिना वारंट तलाशी कब ली जा सकती है?
तो आइए जानते हैं कि बिना सर्च वारंट के CrPC 165, 149 में पुलिस केवल तभी तलाशी ले सकती है जब
एफआईआर गंभीर अपराधों से जुड़े हैं। इस संदेह पर कि
कहीं आरोपी घर में छिपा हो या सबूत नष्ट करने की संभावना हो या आपातकालीन परिस्थिति निर्मित हो।
किंतु यहाँ तो कोई गंभीर अपराध नहीं, कोई घरेलू हिंसा नहीं, मनोज पांडे का एफ़आईआर में नाम नहीं,
कोई सार्वजनिक खतरा नहीं। फिर यह बर्बरता क्यों ?
और जब घर में महिलाएँ थीं, तो महिला पुलिस कहाँ हैं ?
इसका जवाबदेही कौन ?
कई लोगों ने मनोज पांडेय को अपने अपने तरीके से अवैध वसूली ब्लैकमेलर या अन्य शब्दों से सहयोग किया है। जबकि सच तो यह है कि संजीव तिवारी के पीछे कई ऐसे पत्रकार पल रहे हैं जिनके जीविका का साधन संवाद से मिलने वाली विज्ञापन से संचालित होती है। यदि थोक में सभी की कुंडली खंगाली जाए तो जीविकोपार्जन करने वाले चाटुकारों की कुंडली खुल जाएगी। किंतु मनोज पांडे ने संजीव तिवारी के दो दशकों से ट्रांसफर ना होने की खबर अपने अखबार में प्रमुखता से लगाई जा रही हैं क्या ये उसका प्रतिशोध था ? पुलिस द्वारा यदि पुलिस सिविल ड्रेस में गई, नाम-प्लेट नहीं थी या गिरफ्तारी वारंट नहीं था तो यह स्पष्ट रूप से सुप्रीम कोर्ट गाइडलाइन का उल्लंघन है। जिसका जवाब इन्हें अदालत में देनी होगी।
अब सवाल उठते हैं कि एफ़आईआर के आवेदन में संजीव तिवारी ने ख़ुद लिखित दिया है वरिष्ठ पत्रकार और संपादक चैनल इंडिया श्री पवन दुबे से बातचीत कर रहा था तभी 04 लोग मेरे कमरे में घुस आए.. अब तिवारी जी यह भी स्पष्ट कर देते की क्या केवल बातचीत करना शासकीय कार्य में शामिल है ? जब खुद तिवारी ने कहा कि वे पत्रकार से चर्चा कर रहे थे, तो शासकीय कार्य में बाधा वाली धारा क्यों लगाई गई है ? क्या वीडियो में कोई अपशब्द या तोड़फोड़ दिख रही है ? फिर अपशब्द वाली धारा क्यों लगाई गई हैं ? यदि कोई अन्य वीडियो है जिसमें तिवारी पर हमला हुआ हो तो उसे वे सार्वजनिक रूप से जारी अब तक क्यों नहीं किए
हैं ? यदि कथित पत्रकार ब्लैकमेलर हैं, तो उन्हें कानूनी दंड दीजिए परंतु संजीव तिवारी का गला दबाने, अपमानित करने और हमला करने का अपराध नज़र अंदाज़ क्यों?
भारतीय दंड संहिता/भारतीय न्याय संहिता के अनुसार संजीव तिवारी पर यह अपराध बनता है कि धारा 323 स्वेच्छा से चोट कारित करना, धारा 352 बिना उकसावे के हाथापाई, धारा 504 जानबूझकर अपमान करना,
धारा 166 पद का दुरुपयोग, धारा 166A कानूनी कर्तव्य का उल्लंघन, इसी के साथ संजीव तिवारी का दो दशक से ट्रांसफर नहीं होना और एक ही पद में बैठे रहना नियमों की अवहेलना नहीं है क्या ? सरकार इसपर आंखे क्यों बंद किए हुए हैं ?
क्या कानून केवल बड़े अधिकारियों की रक्षा के लिए है ?
क्या एक सरकारी अधिकारी के अपराध को अनदेखा किया जाएगा क्यूंकि वह सरकार के सिस्टम को सरकार के इशारों पर चला रहा है या फिर वह सिस्टम का हिस्सा है ?
शर्मनाक बात तो यह है कि लिखित वारंट न होते हुए भी
यदि पुलिस ने घर में घुसकर DVR से छेड़छाड़ किया है जबकि मनोज पांडेय की बेटी बार बार बोल रही है कि DVR से नीचे दादाजी की स्थिति को देखते हैं क्योंकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं। महिलाओं से अभद्रता की,
या चूड़ी तोड़ी खुद बिना वर्दी और वारंट के घर में घुसे लोगों पर यह धारा 452, 354, और 34 IPC के तहत अपराध कायम क्यों नहीं । जबकि पुलिस वालों पर अपराध पंजीबद्ध होना चाहिए ।
देखने में आता है कि आजकल ज्यादातर पत्रकार ब्लैकमेलर हैं यह धारणा फैलाई जाती है, क्या सरकारी अधिकारी या कर्मचारी भ्रष्ट नहीं होते ? सच्चाई यह है कि पत्रकारों पर ब्लैकमेलर का सर्टिफिकेट जारी करने वाले ही अंदरूनी तरीके से इसमें शामिल रहते हैं। पत्रकारों का चरित्र हनन करना कॉरपोरेट अखबारों के लिए आसान है,
क्योंकि इन्हें जनसंपर्क अधिकारियों से लाखों, करोड़ों के विज्ञापन जो लेने होते हैं! ।