उत्तर प्रदेश के युवा इतिहासकार जनाब “अलतमश रज़ा खान” की कलम से…
“क्या आप उस इंक़लाबी शायर को जानते हैं, जिसकी क़लम ने इस मुल्क को आज़ाद कराने में एक अहम और बेहद खूबसूरत रोल अदा किया. क्या आप जानते हैं कि आज़ादी की लड़ाई के वक़्त जब काज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार की पत्रिका ‘सबाह’ में 1922 में उनकी ये ग़ज़ल छपी, तो अंग्रेज़ी हुकूमत तिलमिला गई. और ब्रिटिश हुकूमत ने इस पत्रिका के तमाम प्रकाशन को ज़ब्त कर लिया”
“जब 1921 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में एक 20 साल के नौजवान ने अपनी इस ग़ज़ल को पढ़ा तो मानो हर किसी के दिल में मुल्क को आज़ाद कराने की तमन्ना जाग उठी. और लोगो में एक जोश पैदा हो गया, ये ग़ज़ल तब भी हर क्रांतिकारी के ज़ुबान पर होती थी. और आज देश के आज़ाद होने के बाद भी जब भी सरकारें ज़ुल्म करती हैं, लोगों की ज़ुबान पर ही रहती है”
“आप सोच रहे होंगे कि आख़िर ऐसी कौन सी ग़ज़ल है जिसकी भूमिका में मेरे शब्द कम पड़ रहे हैं. तो बता दूं कि उस ग़ज़ल की शुरूआत कुछ इस तरह होती है”
“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है”
“देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है”
इस ग़ज़ल के लिखने वाले बिस्मिल अज़ीमाबादी थे, जिनका असल नाम सैय्यद शाह मोहम्मद हसन था..!!
वो 1901 में पटना से 30 किमी दूर हरदास बिगहा गांव में पैदा हुए थे. लेकिन एक-दो साल के अंदर ही अपने पिता सैय्यद शाह आले हसन की मौत के बाद वो अपने नाना के घर पटना सिटी आ गए, जिसे लोग उस समय अज़ीमबाद के नाम से जानते थे. जब उन्होंने शायरी शुरू की तो अपना नाम बिस्मिल अज़ीमाबादी रख लिया, और उसी नाम से उन्हें पूरी दुनिया जानती है..!!
अपनी क़लम से इंक़लाब करने वाला देश का सबसे अहम इंक़लाबी शायर यानी बिस्मिल अज़ीमाबादी 20 जून, 1978 को हमेशा के लिए अलविदा कह कर चले गए..!!
“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ ये ग़ज़ल जब कानों में पड़ती है तो ज़ेहन में राम प्रसाद बिस्मिल का चेहरा आता है”
” आज कल लोगो को गलतफहमी है ये ग़ज़ल राम प्रसाद बिस्मिल का प्रतीक सी बन गई है, लेकिन बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि इसके रचयिता रामप्रसाद बिस्मिल नहीं, बल्कि शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी थे, जिन्हे सय्यद शाह मोहम्मद हसन के नाम से भी जाना जाता था”
राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान पर शोध कर चुके सुधीर विद्यार्थी कहते हैं, “सरफ़रोशी की तमन्ना को राम प्रसाद बिस्मिल ने गाया ज़रूर था, पर ये रचना बिस्मिल अज़ीमाबादी की है”
हमे आज ज़रूरत है, अपनी कुर्बानियों को और अपनी तारीखों को पड़ने की, जिसको आज इतिहास के पन्नो में दफनाया जा रहा है या उसको तोड़ मरोड़ कर दिखाया जा रहा है”
” याद रखना जो कौम अपने आबा अजदाद की कुर्बानियों को याद नही करती और उसको भूल बैठती है, वो कौम ज़लील ओ रुसवा होकर एक लावारिस लाश बनकर रह जाती है”
जो लोग ज़माने की कशमो कश में अपनी तारीखों से मुंह फेर लेते हैं या तारीख को मुर्दा लोगों की दास्तान बता कर उसको भुला देते हैं, वो अकड़ कर एक सूखे दरख्त के मानिंद हो जाते हैं, जो ना तो फल देते हैं ना ही छांव।
उत्तर प्रदेश, बरेली मोहल्ला शाहबाद
( अलतमश रज़ा खान )