New India News/आदिल अहमद अशरफी
“सुप्रीम कोर्ट ने ‘बाबरी मस्जिद’ पर फैसला दिया, ‘ट्रिपल तलाक’ पर फैसला दिया, लेकिन किसी ने धर्म के नाम पर
‘जूता’ नहीं उठाया।”
AIMIM सांसद असद्दुदीन औवेसी का यह वाक्य सिर्फ़ एक तंज नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के व्यवहार पर गहरी टिप्पणी है।
भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में न्यायपालिका के फैसले कई बार धार्मिक भावनाओं को झकझोरते हैं, लेकिन हाल के वर्षों में समाज ने परिपक्वता दिखाई है। चाहे बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद का फैसला हो या ट्रिपल तलाक पर अदालत की राय — इन फैसलों ने भावनाओं को छुआ जरूर, लेकिन देश ने हिंसा के बजाय संविधान पर भरोसा दिखाया।
औवेसी का बयान इसी संवेदनशील संतुलन पर सवाल उठाता है। उनका कहना है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने इतने धार्मिक फैसले सुनाए, तब किसी ने धर्म के नाम पर ‘जूता’ नहीं उठाया। लेकिन जब हाल ही में अदालत के एक वरिष्ठ जज पर कोर्ट परिसर में जूता फेंका गया, तब मामला शांतिपूर्वक टाल दिया गया। औवेसी का प्रश्न है — अगर यही घटना किसी अन्य धर्म या समुदाय से जुड़ी होती, तो क्या माहौल वैसा ही शांत रहता?
यह सवाल सीधे तौर पर न्याय नहीं, बल्कि समान प्रतिक्रिया पर है। समाज और सत्ता दोनों को यह देखना होगा कि एक घटना पर चुप्पी और दूसरी पर उबाल क्यों आता है? क्या हमारी संवेदनशीलता भी धर्म या पहचान के आधार पर बदलती है?
भारत का संविधान सभी धर्मों को समान सम्मान देने की गारंटी देता है। न्यायपालिका की जिम्मेदारी सिर्फ़ फैसला सुनाना नहीं, बल्कि उस विश्वास को बनाए रखना भी है कि न्याय सभी के लिए समान है। औवेसी के इस बयान को केवल राजनीति के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए — यह एक लोकतांत्रिक चेतावनी भी है कि जनता और व्यवस्था दोनों को अपने रवैये में एकरूपता रखनी होगी।
अगर हम हर फैसले को अपने धार्मिक चश्मे से देखेंगे, तो संविधान की दृष्टि धुंधली हो जाएगी। औवेसी का यह कथन समाज की उसी चेतना को झकझोरता है कि असहमति का अर्थ अराजकता नहीं है, और निर्णय से असंतोष का मतलब न्याय व्यवस्था पर हमला नहीं।
भारत की असली ताकत यही है कि यहाँ विचार टकराते हैं, लेकिन समाज नहीं टूटता। अदालतें निर्णय देती हैं, लेकिन सड़कों पर पत्थर नहीं चलते। औवेसी का वाक्य एक आईना है — जो दिखाता है कि धर्म के नाम पर प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि विवेक अब इस देश की नई पहचान बन रही है।
यह बयान हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम सच में “समानता” के उस मुकाम पर पहुँचे हैं जहाँ हर नागरिक, हर धर्म, हर फैसले को एक नज़र से देख सके?
औवेसी ने जो कहा, वह असहमति नहीं — एक लोकतांत्रिक यथार्थ है, जिसे स्वीकार करना परिपक्वता की निशानी होगी।